13 दिसंबर 1661 – 22 दिसंबर 1704
by-janchetna.in
भाई जैता का जन्म 13 दिसंबर 1661 में पटना , बिहार (भारत) में सदा नंद और माता प्रेमो पारगमन और व्यापकता, सर्वेश्वरवाद और अद्वैतवाद में हुआ था। वह पटना में पले-बढ़े जहां उन्होंने विभिन्न हथियारों का प्रशिक्षण लिया और युद्ध की कला सीखी। सिख कौम को कुर्बानी व शाहदतों की कौम कहा जाता है। इतिहास गवाह है कि जब जब भी इस धरती पर ज़ुल्म ने अपने पैर पसारे, बुराई ने मानवता को रौंदना चाहा, तब तब ही गुरू साहिब जी के सिखों ने अपनी जान की बाज़ी लगाते हुए धर्म की रक्षा की और मानवता की सेवा में अपने प्राण त्याग दिए।
सिख इतिहास पर लगे महापुरषों के खून के छींटे बताते हैं कि पौराणिक काल से ही सिंघ कुर्बानियों के शहंशाह रहे है।शहीदों के सरताज धन श्री गुरू अर्जन देव जी महाराज के पदचिन्हों पर चलते हुए उस अकाल पुरख के प्यारों ने हमेशा से ज़ुल्म के खिलाफ अपनी आवाज बुलंद रखी।ऐसे महापुरषों में भाई जेता जी का नाम सूर्य समान चमकता है।
ये वो दौर था जब पंथ के नौवें गुरू धन श्री गुरू तेग बहादुर जी ने कश्मीरी पंडितों के धर्म की रक्षा करते हुए अपने प्राणों की आहुति दे दी थी। गुरू साहिब जी ने क्रूर बादशाह #औरंगज़ेब तक खबर पहुंचाई थी कि यदि गुरू साहिब जी ने इस्लाम कबूल कर लिया तो ये सभी कश्मीरी ब्राह्मण भी इस्लाम स्वीकार कर लेंगे। इसके बाद जो हुआ उसे इतिहास ने स्वर्णिम अक्षरों में संजोया। गुरू साहिब जी हंसते हुए अपनी कुर्बानी दे गए। लेकिन क्रूर बादशाह औरंगज़ेब को अभी भी चैन नहीं आया था। उसने गुरू साहिब जी के पवित्र पार्थिव शरीर की बेअदबी करने के लिए शरीर के टुकड़े कर के उसे दिल्ली के चारों बाहरी गेटों पर लटकाने का आदेश दे दिया।
लेकिन उसी समय अचानक आये तूफान का लाभ उठाकर भाई लख्खी शाह गुरु जी का धड़ और भाई जैता जी गुरु जी का शीश उठाकर ले गए। उनके पीछे अब शाही फौजें थीं जिनका काम भाई जी को मार गुरू जी के मृत शरीर को वापिस लाना था।
सबको लग रहा था कि मुगल सैनिक गुरु जी के शीश को आनन्दपुर साहिब तक नहीं पहुंचने देंगे। लेकिन भाई जैता सिंह जी दृढ़ निश्चय के साथ गुरू साहिब जी की सेवा में उतरे थे। उन्होंने कहा कि गुरु साहिब जी को ‘हिन्द की चादर’ कहा जाता है। उनके सम्मान को बचाना अर्थात हिन्द का सम्मान बचाना है। इसके बाद भाई जी अपनी जान की परवाह किए बगैर ही शाही मुग़ल सेना के खतरनाक पहरे को किसी आंधी की तरह तोड़ते हुए वहां से गायब हो गए।
जानकार बताते हैं कि इसके बाद भाई जैता जी ने गुरू साहिब जी के शीश के साथ लगातार 322 कि.मी का सफर अपने कदमों पर तय किया और गुरू गोबिंद सिंह जी तक पहुंचे।
श्री कीरतपुर साहिब पहुँचकर भाई जैता जी ने स्वयँ गुरू गोबिन्द सिंह जी को उनके पिता श्री गुरु तेग बहादुर साहिब जी का पार्थिव शीश भेंट किया। भाई जैता जी की गुरू भक्ती को देखते हुए उन्होंने भाई जी को ‘‘रँगरेटा गुरु का बेटा’’ कहकर उनका मान बढ़ाया।
इसके बाद दादी माँ व माता गुजरी जी ने परामर्श दिया कि श्री आनंदपुर साहिब जी की नगरी गुरु जी ने स्वयँ बसाई हैं अतः उनके पावन शीश का संस्कार वही किया जाए। इसके बाद गुरू साहिब जी के शीश को पालकी में आंनदपुर साहिब लाया गया। सभी ने गुरु जी के पार्थिव शीश को श्रद्धा सुमन अर्पित किए फिर उनका सँस्कार किया गया। इस तरह धर्म की खातिर ज़ुल्म का सामना करने वाले भाई जेता जी का नाम भारतीय परम्परा में सदा के लिए अमर हो गया।
आज हम जिस आज़ाद मिट्टी और हवा में सांस ले रहे हैं इसका मूल्य हमारे महापुरषों ने अपनी जान की बाज़ी देकर चुकाया है। इसलिए हमारा यह कर्तव्य बनता है कि हम ऐसे महान वीर सेवादारों की कुर्बानियों को सदैव याद रखें।
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