इतिहास भगत रामानद जी@SH#EP=21

                              

                                              By-janchetna.in

                              जन्म

स्वामी रामानन्द जी का जन्म 1199 इस्वी को प्रयागराज में एक ब्राह्मण परिवार में हुआ था। उनकी माता का नाम सुशीला देवी और पिता का नाम पुण्य सदन शर्मा था। आरंभिक काल में हीं उन्होंने कई तरह के अलौकिक चमत्कार दिखाने शुरू किये। धार्मिक विचारों वाले उनके माता-पिता ने बालक रामानंद को शिक्षा पाने के लिए काशी के स्वामी राधवानंद के पास श्रीमठ भेज दिया। श्रीमठ में रहते हुए उन्होंने वेद, पुराणों और दूसरे धर्मग्रंथों का अध्ययन किया और प्रकांड विद्वान बन गये।पंचगंगा घाट स्थित श्रीमठ में रहते हुए उन्होंने कठोर साधना की।

भगत पीपाधन्ना , नरहर्यानंदसुखानंदकबीररैदाससुरसरीपदमावती जैसे बारह लोगों को अपना प्रमुख शिष्य बनाया, जिन्हे द्वादश महाभागवत के नाम से जाना जाता है। इन्हें अपने अपने जाति समाज मे, और इनके क्षेत्र में भक्ति का प्रचार करने का दायित्व सौपा, इनमें कबीर दास और रैदास आगे चलकर काफी ख्याति अर्जित किये। कालांतर में कबीर पंथ, रामानंदीय सम्प्रदाय से अलग रास्ते पर चल पड़ा रामानंदीय सम्प्रदाय सगुण उपासक है और विशिष्टाद्वैत सिद्धान्त को मानते है  कबीर और रविदास ने निर्गुण राम की उपासना की। इस तरह कहें तो स्वामी रामानंद ऐसे महान संत थे जिसकी छाया तले सगुण और निर्गुण दोनों तरह के संत-उपासक विश्राम पाते थे। जब समाज में चारो ओर आपसी कूटता और वैमनस्य का भाव भरा हुआ था, वैसे समय में स्वामी रामानंद ने भक्ति करने वालों के लिए नारा दिया जात-पात पूछे ना कोई-हरि को भजै सो हरि का होई उन्होंने सर्वे प्रपत्तेधिकारिणों मताः का शंखनाद किया और भक्ति का मार्ग सबके लिए खोल दिया। किन्तु वर्णसंकरता नहीं हो, इसलिये संन्यासी/वैरागी के लिए कठोर नियम बनाए, उन्होंने महिलाओं को भी भक्ति के वितान में समान स्थान दिया।

स्वामी रामानंद द्वारा स्थापित रामानंदी‌ सम्प्रदाय या रामावत संप्रदाय आज वैष्णव संन्यासी/ साधुओं का सबसे बड़ा धार्मिक जमात है। वैष्णवों के 52 द्वारों में 36 द्वारे केवल रामानंदिय सन्यासियों/वैरागियों के हैं। यह सभी द्वारे ब्राह्मण कुल के शिष्यों ने स्थापित किए, इनमे से एक पीपासेन जी क्षत्रिय थे, सम्प्रदाय की शर्त अनुसार यह सभी ब्रह्मचारी हो, यह आवश्यक है । इस संप्रदाय के संन्यासी/साधु बैरागी भी कहे जाते हैं। इनके अपने अखाड़े भी हैं। यूं तो रामानंदी सम्प्रदाय की शाखाएं औऱ उपशाखाएँ देश भर में फैली हैं। लेकिन अयोध्याचित्रकूटनाशिकहरिद्वार में इस संप्रदाय के सैकड़ो मठ-मंदिर हैं। काशी के पंचगंगा घाट पर अवस्थित श्रीमठ, दुनिया भर में फैले रामानंदियों का मूल गुरुस्थान है। दूसरे शब्दों में कहें तो काशी का श्रीमठ हीं सगुण और निर्गुण रामभक्ति परम्परा और रामानन्दी सम्प्रदाय का मूल आचार्यपीठ है। वर्तमान में जगदगुरू रामानंदाचार्य स्वामी श्रीरामनरेशाचार्य जी महाराज, श्रीमठ के गादी पर विराजमान हैं। वे न्याय शास्त्र के प्रकांड विद्वान हैं और संन्यासी जगत में समादृत हैं।

स्वामी रामानंद ने भक्ति मार्ग का प्रचार करने के लिए देश भर की यात्राएं की। वे पुरी और दक्षिण भारत के कई धर्मस्थानों पर गये और रामभक्ति का प्रचार किया। राम भक्ति की पावन धारा को हिमालय की पावन ऊंचाईयों से उतारकर स्वामी रामानंद ने गरीबों और वंचितों की झोपड़ी तक पहुंचाया, वे भक्ति मार्ग के ऐसे सोपान थे जिन्होंने भक्ति साधना को नया आयाम दिया। उनकी पवित्र चरण पादुकायें आज भी श्रीमठ, काशी में सुरक्षित हैं, जो करोड़ों रामानंदियों की आस्था का केन्द्र है। स्वामीजी ने भक्ति के प्रचार में संस्कृत की जगह लोकभाषा को प्राथमिकता दी। उन्होंने कई पुस्तकों की रचना की जिसमें आनंद भाष्य पर टीका भी शामिल है। वैष्णवमताब्ज भास्कर भी उनकी प्रमुख रचना है।

भारतीय धर्म, दर्शन, साहित्य और संस्कृति के विकास में भागवत धर्म तथा वैष्णव भक्ति से संबद्ध वैचारिक क्रांति की महत्वपूर्ण भूमिका रही है। वैष्णव भक्ति के महान संतों की उसी श्रेष्ठ परंपरा में आज से लगभग सात सौ नौ वर्ष पूर्व स्वामी रामानंद का प्रादुर्भाव हुआ। उन्होंने श्री सीतारामजी द्वारा पृथ्वी पर प्रवर्तित विशिष्टाद्वैत (राममय जगत की भावधारा) सिद्धांत तथा रामभक्ति की धारा को मध्यकाल में अनुपम तीव्रता प्रदान की। उन्हें उत्तरभारत में आधुनिक भक्ति मार्ग का प्रचार करने वाला और वैष्णव साधना के मूल प्रवर्त्तक के रूप में स्वीकार किया जाता है।

स्वामी रामानन्द ने तत्कालीन समाज में विभिन्न मत-पंथ संप्रदायों में घोर वैमनस्यता और कटुता को दूर कर हिंदू समाज को एक सूत्र में बांधने का महनीय कार्य किया। स्वामीजी ने मर्यादा पुरूषोत्तम श्रीराम को आदर्श मानकर रामभक्ति मार्ग का निदर्शन किया। उनकी शिष्य मंडली में उस काल के महान सन्त कबीरदासरैदाससेननाई जैसे निर्गुणवादी संत थे तो दूसरे पक्ष में अवतारवाद के पूर्ण समर्थक अर्चावतार मानकर मूर्तिपूजा करने वाले स्वामी अनन्तानन्द, भावानन्द, सुरसुरानन्द, नरहर्यानन्द जैसे वैष्णव ब्राह्मण सगुणोपासक आचार्य भक्त भी थे। गागरौनगढ़ नरेश ‘पीपाजी’ जैसे क्षत्रिय, सगुणोपासक भक्त भी उनके शिष्य थे । आचार्य रामानंद के बारे में प्रसिद्ध है कि तारक राममंत्र का उपदेश उन्होंने पेड़ पर चढ़कर दिया था ताकि सब जाति के लोगों के कान में पड़े और अधिक से अधिक लोगों का कल्याण हो सके।

आचार्यश्री ने स्वतंत्र रूप से रामानन्दी सम्प्रदाय का प्रवर्तन किया। इस संप्रदाय को ‘रामावत’ अथवा बैरागी संप्रदाय भी कहते हैं। इसके 32 ऋषि गोत्री गृहस्थ अनुयायी, वैष्णव ब्राह्मण हैं। इस सम्प्रदाय के सन्यासियों को ‘बैरागी’ कहा जाता है। अन्य कई समाज जैसे, धन्नावंशी समाज, सेन समाज इत्यादि रामन्दाचार्य जी के अनुयायी हैं। रामानन्दाचार्य जी ने बिखरते और नीचे गिरते हुए हिन्दू धर्म को मजबूत बनाने की भावना से भक्ति मार्ग में जाति-पांति के भेद को व्यर्थ बताया और कहा कि भगवान की शरणागति का मार्ग सबके लिए समान रूप से खुला है। सर्व प्रपत्तिधरकारिणो मताः कहकर उन्होंने किसी भी जाति-वर्ण के व्यक्ति को राममंत्र देने में संकोच नहीं किया। चर्मकार जाति में जन्मे रैदास और जुलाहे के घर पले-बढ़े कबीरदास इसके अनुपम उदाहरण हैं।

मध्ययुगीन धर्म साधना के केंद्र में स्वामी जी की स्थिति चतुष्पथ के दीप-स्तंभ जैसी है। उन्होंने अभूतपूर्व सामाजिक क्रांति का श्रीगणेश करके बड़ी जीवटता से समाज और संस्कृति की रक्षा की। उन्हीं के चलते उत्तरभारत में तीर्थ क्षेत्रों की रक्षा और वहां सांस्कृतिक केंद्रों की स्थापना संभव हो सकी। उस युग की परिस्थितियों के अनुसार, वैरागी साधुओं को अस्त्र-शस्र से सज्जित अनी के रूप में संगठित कर तीर्थ-व्रत की रक्षा के लिए, धर्म का सक्रिय मूर्तिमान स्वरूप खड़ा किया। तीर्थस्थानों से लेकर गांव-गांव में वैरागी साधुओं ने अखाड़े स्थापित किए। मूल्य ह्रास की इस विषम अवस्था में भी संपूर्ण संसार में रामानंद संप्रदाय के सर्वाधित मठ, संत, रामगुणगान, अखंड रामनाथ संकीर्तन आज भी व्यवस्थित हैं और सर्वत्र आध्यामिक आलोक प्रसारित कर रहे हैं। वैष्णवों के बावन द्वारों में सर्वाधिक बत्तीस द्वारे इसी संप्रदाय से जुड़े हैं। रामन्दाचार्य जी स्पष्ट रूप से सगुण उपासक थे । उनका विशिष्टाद्वेत सिद्धान्त था।

यह स्वामी रामानंद के ही व्यक्तित्व का प्रभाव था कि हिंदू-मुस्लिम वैमनस्य, शैव-वैष्णव विवाद, वर्ण-विद्वेष, मत-मतांतर का झगड़ा और परस्पर सामाजिक कटुता बहुत हद तक कम हो गई। उनके ही यौगिक शक्ति के चमत्कार से प्रभावित होकर तत्कालीन मुगल शासक मोहम्मद तुगलक संत कबीरदास के माध्यम से स्वामी रामानंदाचार्य की शरण में आया और हिंदुओं पर लगे समस्त प्रतिबंध और जजियाकर को हटाने का निर्देश जारी किया। बलपूर्वक इस्लाम धर्म में दीक्षित हिंदुओं को फिर से हिंदू धर्म में वापस लाने के लिए परावर्तन संस्कार का महान कार्य सर्वप्रथम स्वामी रामानंदाचार्य ने ही प्रारंभ किया। इतिहास साक्षी है कि अयोध्या के राजा हरिसिंह के नेतृत्व में चौंतीस हजार राजपूतों को एक ही मंच से स्वामीजी ने स्वधर्म अपनाने के लिए प्रेरित किया था। ऐसे महान संत, परम विचारक, समन्वयी महात्मा का प्रादुर्भाव तीर्थराज प्रयाग में एक कान्यकुब्ज ब्राह्मण परिवार में हुआ था। जन्मतिथि को लेकर मतभेद होने के बावजूद रामानंद संप्रदाय में मान्यता है कि आद्य जगद्गुरू का प्राकट्य माघ कृष्ण सप्तमी संवत् 1356 को हुआ था। इनके पिता का नाम पंडित पुण्य सदन शर्मा और माता का नाम सुशीला देवी था। धार्मिक संस्कारों से संपन्न पिता ने रामानंद को काशी के श्रीमठ में गुरू राघवानंद के सानिध्य में शिक्षा ग्रहण के लिए भेजा. कुशाग्रबुद्धि के रामानंद ने अल्पकाल में ही सभी शास्त्रों, पुराणों का अध्ययन कर प्रवीणता प्राप्त कर ली। गुरू राघवानंद और माता-पिता के दबाव के बावजूद उन्होंने गृहस्थाश्रम स्वीकार नहीं किया और आजीवन विरक्त रहने का संकल्प लिया। ऐसे में स्वामी रामानंद को रामतारक मंत्र की दीक्षा प्रदान की। रामानंद ने श्रीमठ की गुह्य साधनास्थली में प्रविष्ट हो राममंत्र का अनुष्ठान तथा अन्यान्य तांत्रिक साधनाओं का प्रयोग करते हुए घोर तपश्चर्या की। योगमार्च की तमाम गुत्थियों को सुलझाते हुए उन्होंने अष्टांग योग की साधना पूर्ण की। दीर्घायुष्य प्राप्त करने के कारण जगद्गुरू राघवानंद ने अपने तेजस्वी और प्रिय शिष्ट रामानंद को श्रीमठ पीठ की पावन पीठ पर अभिषिक्त कर दिया। अपने पहले संबोधन में ही जगदगुरू रामानंदाचार्य ने हिंदू समाज में व्याप्त कुरीतियों एवं अंधविश्वासों को दूर करने तथा परस्पर आत्मीयता एवं स्नेहपूर्ण व्यवहार के बदौलत धर्म रक्षार्थ विराट संगठित शक्ति खड़ा करने के संकल्प व्यक्त किया। काशी के परम पावन पंचगंगा घाट पर अवस्थित श्रीमठ, आचार्यपाद के द्वारा प्रवाहित श्रीराम प्रपत्ति की पावनधारा के मुख्यकेंद्र के रूप में प्रतिष्ठित होकर उसी ओजस्वी परंपरा का अनवरत प्रवर्तन कर रहा है। आज भी श्रीमठ आचार्यचरण की परिकल्पना के अनुरूप उनके द्वारा प्रज्ज्वलित दीप से जनमानस को आलोकित कर रहा है। यही वह दिव्यस्थल है, जहां विराजमान होकर स्वामीजी ने अपने परमप्रतापी शिष्यों के माध्यम से अपनी अनुग्रहशक्ति का उपयोग किया था।

रामानंदाचार्य पीठ का पवित्र केंद्र सारे देश में फैले रामानंद संप्रदाय का मुख्यालय है। श्रीमठ में अवस्थित रामानंदाचार्च की चरणपादुका दुनियाभर में बिखरे रामानंदी संतों, तपस्वियों एवं अनुयायियों की श्रद्धा का अन्यतम बिंदु है। यह परम सौभाग्य और संतोष का विषय है कि श्रीमठ के वर्तमान पीठासीन आचार्य स्वामी रामनरेशाचार्यजी भी स्वामी रामानंदाचार्य की प्रतिमूर्ति जान पड़ते हैं। उनकी कल्पनाएं, उनका ज्ञान, उनकी वग्मिता और सबसे अच्छी उनकी उदारता और संयोजन चेतना ऐसी है कि यह विश्वास किया जाता है कि स्वामी रामानंद का व्यक्तित्व कैसा रहा होगा। वर्तमान जगद्गुरू रामानंदाचार्य पद प्रतिष्ठित स्वामी रामनरेशाचार्य जी महाराज के सत्प्रयासों का नतीजा है कि श्रीमठ से कभी अलग हो चुकी रामस्नेही आदि प्रभृति परंपराएं वैष्णव के सूत्र में बंधकर श्रीमठ से एकरूपता स्थापित कर रही है। कई परंपरावादी मठ मंदिरों की इकाईयां श्रीमठ में विलीन हो रही हैं। तीर्थराज प्रयाग के दारागंज स्थित आद्य जगद्गुरू रामनंदाचार्य का प्राकट्यधाम भी इनकी प्रेरणा से फिर भव्य स्वरूप में प्रकट हुआ है। स्वामी रामानंद को रामोपासना के इतिहास में एक युगप्रवर्तक आचार्य माना जाता है। उन्होंने श्रीसंप्रदाय के विशिष्टाद्वैत दर्शन और प्रपतिसिद्धांत को आधार बनाकर रामावत संप्रदाय का संगठन किया। श्रीवैष्णवों के नारायण मंत्र के स्थान पर रामतारक अथवा षड्क्षर राममंत्र को सांप्रदायिक दीक्षा का बीजमंत्र बाह्य सदाचार की अपेक्षा साधना में आंतरिक भाव की शुद्धता पर जोर दिया, असमानता का भाव मिटाकर वैष्णव मंत्र में समानता का समर्थन किया। नवधा से परा और प्रेमासक्ति को श्रेयकर बताया। साथ-साथ सिद्धांतों के प्रचार में परंपरापोषित संस्कृत भाषा की अपेक्षा हिंदी अथवा जनभाषा को प्रधानता दी। स्वामी रामानंद ने प्रस्थानत्रयी पर विशिष्टाद्वैत सिद्धांतनुगुण स्वतंत्र आनंद भाष्य की रचना की। तत्व एवं आचारबोध की दृष्टि से वैष्णवमताब्ज भास्कर, श्रीरामपटल, श्रीरामार्चनापद्धति, जैसी अनेक कालजयी मौलिक ग्रंथों की रचना की। स्वामी रामानंद के द्वारा दी गई देश-धर्म के प्रति इन अमूल्य सेवाओं ने सभी संप्रदायों के वैष्णवों के हृदय में उनका महत्व स्थापित कर दिया। भारत के सांप्रदायिक इतिहास में परस्पर विरोधी सिद्धांतों तथा साधना-पद्धतियों के अनुयायियों के बीच इतनी लोकप्रियता उनके पूर्व किसी संप्रदाय प्रवर्तक को प्राप्त न हो सकी। महाराष्ट्र के नाथपंथियों ने ज्ञानदेव के पिता विट्ठल पंत के गुरू के रूप में उन्हें पूजा, अद्वैत मतावलंबियों ने ज्योतिर्मठ के ब्रह्मचारी के रूप में उन्हें अपनाया. बाबरीपंथ के संतों ने अपने संप्रदाय के प्रवर्तक मानकर उनकी वंदना की और कबीर के गुरू तो वे थे ही, इसलिए रामानन्दी सम्प्रदाय से पूर्ण रूप से भिन्न होने के बाद भी कबीरपंथियों में उनका आदर स्वाभाविक है। स्वामी-रामानंद के व्यक्तित्व की इस व्यपाकता का रहस्य, उनकी उदार एवं सारग्राही प्रवृति और समन्वयकारी विचारधारा में निहित है। निश्चय हीं उनके विराट व्यक्तित्व एवं व्यापक महत्ता के अनुरूप कतिपय आर्षग्रंथ एवं संत-साहित्य में उल्लेखित उनके रामावतार होने का वर्णन अक्षरशः प्रमाणित होता है।

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