इतिहास भक्त नामदेव जी @SH#EP=17

                           इतिहास भक्त नामदेव जी @SH#EP=17

                             by-janchetna.in

भक्त नामदेव जी महाराज का जन्म २६ अकटुबर १२७० (शके ११९२) में महाराष्ट्र के सतारा जिले में कृष्णा नदी के किनारे बसे नरसी बामणी नामक गाँव में एक शिंपी जिसे छीपा भी कहते है के परिवार में हुआ था। इनके पिता का नाम दामाशेट जी और माता का नाम गोणाई देवी था। इनका परिवार भगवान विट्ठल का परम भक्त था। भगत नामदेव जी का विवाह राधाबाई के साथ हुआ था और इनके पुत्र का नाम नारायण जी था।

भगत नामदेव छिम्पा समाज से थे इसलिए छिम्पा समाज हर वर्ष उनकी पूण्यतिथि मनाता हे व् भगत नामदेव जी की यादगार में उनके नाम से अनेक स्थानों पर गुरुद्वारा साहिब भी बनाये गये हे

संत नामदेव जी ने विसोबा खेचर को गुरु के रूप में स्वीकार किया था। ये संत ज्ञानेश्वर के समकालीन थे और उम्र में उनसे ५ साल बड़े थे। संत नामदेव, संत ज्ञानेश्वर के साथ पूरे महाराष्ट्र का भ्रमण किए, भक्ति-गीत रचे और जनता जनार्दन को समता और प्रभु-भक्ति का पाठ पढ़ाया। संत ज्ञानेश्वर के परलोक गमन के बाद इन्होंने पूरे भारत का भ्रमण किया। इन्होंने मराठी के साथ ही साथ हिन्दी में भी रचनाएँ लिखीं। इन्होंने अठारह वर्षो तक पंजाब में भगवन्नाम का प्रचार किया। अभी भी इनकी कुछ रचनाएँ सिक्खों की धार्मिक पुस्तकों में मिलती हैं। मुखबानी नामक पुस्तक में इनकी रचनाएँ संग्रहित हैं। आज भी इनके रचित गीत पूरे महाराष्ट्र में भक्ति और प्रेम के साथ गाए जाते हैं। ये संवत १४०७ में समाधि में लीन हो गए।

सन्त नामदेव के समय में नाथ और महानुभाव पंथों का महाराष्ट्र में प्रचार था। नाथ पंथ “अलख निरंजन” की योगपरक साधना का समर्थक तथा बाह्याडंबरों का विरोधी था और महानुभाव पंथ वैदिक कर्मकांड तथा बहुदेवोपासना का विरोधी होते हुए भी मूर्तिपूजा को सर्वथा निषिद्ध नहीं मानता था। इनके अतिरिक्त महाराष्ट्र में पंढरपुर के “विठोबा” की उपासना भी प्रचलित थी। सामान्य जनता प्रतिवर्ष आषाढ़ी और कार्तिकी एकादशी को उनके दर्शनों के लिए पंढरपुर की “वारी” (यात्रा) किया करती थी (यह प्रथा आज भी प्रचलित है), इस प्रकार की वारी (यात्रा) करनेवाले “वारकरी” कहलाते हैं। विट्ठलोपासना का यह “पंथ” “वारकरी” संप्रदाय कहलाता है। नामदेव इसी संप्रदाय के प्रमुख संत माने जाते हैं।

               परलोक गमन

आपने दो बार तीर्थ यात्रा की व साधु संतो से भ्रम दूर करते रहे। ज्यों ज्यों आपकी आयु बढती गई, त्यों त्यों आपका यश फैलता गया। आपने दक्षिण में बहुत प्रचार किया। आपके गुरु देव ज्ञानेश्वर जी परलोक गमन कर गए तो आप भी कुछ उपराम रहने लग गए। अन्तिम दिनों में आप पंजाब आ गए। अन्त में आप अस्सी साल की आयु में 1407 विक्रमी को परलोक गमन कर गए।

               साहित्यक देन

नामदेव जी ने जो बाणी उच्चारण की वह गुरुग्रंथ साहिब में भी मिलती है। बहुत सारी वाणी दक्षिण व महाराष्ट्र में गाई जाती है। आपकी वाणी पढ़ने से मन को शांति मिलती है व भक्ति की तरफ मन लगता है।

             ठाकुर को दूध पिलाना

एक दिन नामदेव जी के पिता किसी काम से बाहर जा रहे थे। उन्होंने नामदेव जी से कहा कि अब उनके स्थान पर वह ठाकुर की सेवा करेंगे जैसे ठाकुर को स्नान कराना, मन्दिर को स्वच्छ रखना व ठाकुर को दूध चढ़ाना। जैसे सारी मर्यादा मैं पूर्ण करता हूँ वैसे तुम भी करना। देखना लापरवाही या आलस्य मत करना नहीं तो ठाकुर जी नाराज हो जाएँगे।

नामदेव जी ने वैसा ही किया जैसे पिताजी समझाकर गए थे। जब उसने दूध का कटोरा भरकर ठाकुर जी के आगे रखा और हाथ जोड़कर बैठा व देखता रहा कि ठाकुर जी किस तरह दूध पीते हैं? ठाकुर ने दूध कहाँ पीना था? वह तो पत्थर की मूर्ति थे। नामदेव को इस बात का पता नहीं था कि ठाकुर को चम्मच भरकर दूध लगाया जाता व शेष दूध पंडित पी जाते थे। उन्होंने बिनती करनी शुरू की हे प्रभु! मैं तो आपका छोटा सा सेवक हूँ, दूध लेकर आया हूँ कृपा करके इसे ग्रहण कीजिए। भक्त ने अपनी बेचैनी इस प्रकार प्रगट की –

हे प्रभु! यह दूध मैं कपला गाय से दोह कर लाया हूँ। हे मेरे गोबिंद! यदि आप दूध पी लेंगे तो मेरा मन शांत हो जाएगा नहीं तो पिताजी नाराज़ होंगे। सोने की कटोरी मैंने आपके आगे रखी है। पीए! अवश्य पीए! मैंने कोई पाप नहीं किया। यदि मेरे पिताजी से प्रतिदिन दूध पीते हो तो मुझसे आप क्यों नहीं ले रहे? हे प्रभु! दया करें। पिताजी मुझे पहले ही बुरा व निकम्मा समझते हैं। यदि आज आपने दूध न पिया तो मेरी खैर नहीं। पिताजी मुझे घर से बाहर निकाल देंगे।

जो कार्य नामदेव के पिता सारी उम्र न कर सके वह कार्य नामदेव ने कर दिया। उस मासूम बच्चे को पंडितो की बईमानी का पता नहीं था। वह ठाकुर जी के आगे मिन्नतें करता रहा। अन्त में प्रभु भक्त की भक्ति पर खिंचे हुए आ गए। पत्थर की मूर्ति द्वारा हँसे। नामदेव ने इसका जिक्र इस प्रकार किया है –

ऐकु भगतु मेरे हिरदे बसै ।

नामे देखि नराइनु हसै ॥ (पन्ना ११६३)

एक भक्त प्रभु के ह्रदय में बस गया। नामदेव को देखकर प्रभु हँस पड़े। हँस कर उन्होंने दोनों हाथ आगे बढाएं और दूध पी लिया। दूध पीकर मूर्ति फिर वैसी ही हो गई।

दूधु पीआई भगतु घरि गइआ ।

नामे हरि का दरसनु भइआ ॥ (पन्ना ११६३ – ६४)

दूध पिलाकर नामदेव जी घर चले गए। इस प्रकार प्रभु ने उनको साक्षात दर्शन दिए। यह नामदेव की भक्ति मार्ग पर प्रथम जीत थी।

शुद्ध ह्रदय से की हुई प्रर्थना से उनके पास शक्तियाँ आ गई। वह भक्ति भव वाले हो गए और जो वचन मुँह निकलते वही सत्य होते। जब आपके पिताजी को यह ज्ञान हुआ कि आपने ठाकुर में जान डाल दी व दूध पिलाया तो वह बहुत प्रसन्न हुए। उन्होंने समझा उनकी कुल सफल हो गई है।

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